147 . द्विशासन : वैशाली की नगरवधू
पाटलिग्राम के पूर्वीय भाग पर मागध सैन्य का अधिकार था , और पश्चिमीय भाग पर लिच्छवियों का । दोनों ओर से रह- रहकर बाण -वर्षा हो रही थी । ग्राम के बहुत - से घर आग से जल और ढह गए थे। ग्रामवासी बहुत - से भाग गए थे। जो रह गए थे वे अपने - अपने घरों के खण्डहरों में छिपे थे। गली - कूचों में मृत नागरिकों और सैनिकों की लोथें सड़ रही थीं । कूड़ा - कर्कट और सड़ी - अधजली लोथों को सूअर, गृध्र और दूसरे वन्य पशुओं ने खोद खोदकर बिखेर दिया था । दुर्गन्ध से नाक नहीं दी जाती थी । ग्राम में कोई व्यक्ति नहीं दीख रहा था ।
अभी एक आक्रमण हो चुका था । मागधों ने वज्जी सैन्य को मार भगाया था । एक मागध सेनानायक ने अश्वारूढ़ हो , एक सैनिक टुकड़ी के साथ ग्राम के मध्य भाग में खड़े हो , ऊंचे स्वर से ढोल पीट - पीटकर घोषणा की - “ इस पाटलिग्राम पर मगध - सम्राट का अधिकार है ! जो कोई लिच्छवि गण को बलि देगा उसे सूली होगी । जो कोई लिच्छवि जन को आश्रय देगा , उसका शिरच्छेद होगा । ग्रामविासयो! अपने - अपने घरों से निकल आओ, तुम्हें मगध सम्राट अभय - दान करते हैं । ”घोषणा सुनकर एक - दो कुत्ते भूक उठे , परन्तु कोई नर -नारी नहीं आए। नायक ने फिर ढोल पीटकर घोषणा की । तब एक वृद्ध ने फूटे हुए खण्डहर की ओर से सिर निकालकर देखा । वह कांपता - कांपता बाहर आया। आकर हाथ जोड़कर बोला - “ भन्ते सेनापति , मैं मगध प्रतिजन हूं, मुझे अभय दो ! मैं सम्राट् को बलि दूंगा। ”
“ तो भणे, तुझे अभय ! किन्तु ग्राम में और कौन है ? ”
“ जीवित मनुष्य कोई नहीं। ”
“ सब मृतक हैं ? ”
“ सब। ”
“ शेष कहां गए। ”
“ भाग गए । ”
“ तुम क्यों नहीं भागे ? ”
“ भाग नहीं सकता, भन्ते सेनापति, वृद्ध हूं, जर्जर हूं, शक्तिहीन हूं। ”
“ तो भणे, तू मागध प्रतिजन है न ?
“ हां सेनापति ! ”
“ तो तुझे अभय है। मगध सम्राट् को बलि देगा ? ”
“ दूंगा सेनापति ! ”
इसी समय बाणों की वर्षा करती हुई लिच्छवि सैन्य की एक टुकड़ी ने इस मागध टुकड़ी पर आक्रमण किया । उसका ढोल छीन लिया । कुछ सैनिक मारे गए। कुछ भाग गए । बूढ़ा फिर भागकर घर के छप्पर के पीछे छिप गया ।
लिच्छवि नायक ने ढोल पीटकर घोषणा की - “ इस पाटलिग्राम पर लिच्छवि गण का अधिकार है, जो कोई मागधजन को आश्रय देगा , उसे सूली होगी । पाटलिग्राम - वासियो ! सुनो, बाहर आओ! प्रतिज्ञा करो कि तुम वज्जीगण को बलि दोगे, तुम्हें अभय ! ”
वृद्ध ने फिर सिर निकालकर देखा । कांपते -कांपते बाहर आया । आकर उसने सेनापति नायक को अभिवादन किया ।
नायक ने पूछा - “ ग्राम के और जन कहां हैं ? ”
“ जीवित सब भाग गए । मृत यत्र - तत्र पड़े हैं । कुछ को वन्य पशु खा गए। ”
“ तुम नहीं भागे ? ”
“ भाग नहीं सकता भन्ते , अशक्त हूं। ”
“ क्या ग्राम में अन्य पुरुष नहीं हैं ? ”
“ जीवित नहीं भन्ते ! ”
“ तो सुनो , तुम अब से वज्जीगण शासन के अधीन हो । ”
“ अच्छा भन्ते ! ”
“ वज्जीगण को बलि देना होगा ? ”
“ दूंगा भन्ते! ”
“ मागधों को आश्रय देने से सूली होगी ! ”
“ समझ गया भन्ते ! ”
“ तो तुझे अभय!
नायक अपनी सेना लेकर सड़ती लोथों के बीच से होकर चला गया । वृद्ध फिर घर के खण्डहर में जा छिपा ।